दीपावली रोशनी का पर्व है और दीया प्रकाश का प्रतीक है और तमस को दूर करता है। दीये से ज्यादा प्रकृति के सर्वाधिक निकट कौन होगा।
मिट्टी का शुद्ध रूप। म का शुद्ध रूप। सादगी का शुद्ध रूप। और क्षणभंगुरता का भी शुद्ध रूप। अपने अकेले होने पर गर्व भी और पंक्ति से जुड़ने की चाह भी और यह दार्शनिकता भी कि जीवन क्षणभंगुर है। मिट्टी को मिट्टी में मिल जाना है। तेल को जल जाना है और बाती को अंततः नष्ट हो जाना है। इसलिए जब तक हूँ रोशनी बिखेरूँ। प्रकाशित करूँ, सबसे पहले अपने आपको। फिर संभवतः आसपास भी प्रकाशित हो जाए। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस-दीपावली, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का आसुरी शक्तियों पर विजय के पश्चात अयोध्या आगमन का ज्योति दिवस-दीपावली, तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक माँ काली की उपासना का पर्व-दीपावली, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना का पर्व-दीपावली, ऋद्धि-सिद्धि, श्री और समृद्धि का पर्व-दीपावली, आनंदोत्सव का प्रतीक वात्सायन का श्रृंगारोत्सव-दीपावली, ज्योति से ज्योति जलाने का पर्व-दीपावली।दीपावली का यह पर्व प्रत्येक भारतीय की रग-रग में रच-बस गया है। इस पर्व पर हर घर, हर आंगन, हर बस्ती, हर गाँव में सब कुछ रोशनी से जगमगा जाया करता है। आदमी मिट्टी के दीए में स्नेह की बाती और परोपकार का तेल डालकर उसे जलाते हुए भारतीय संस्कृति को गौरव और सम्मान देता है, क्योंकि दीया भले मिट्टी का हो मगर वह हमारे जीने का आदर्श है, हमारे जीवन की दिशा है, संस्कारों की सीख है, संकल्प की प्रेरणा है और लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है। दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब भीतर का अंधकार दूर हो। अंधकार जीवन की समस्या है और प्रकाश उसका समाधान। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश चाहिए। प्रारंभ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही।अंधकार हमारे अज्ञान का, दुराचरण का, दुष्टप्रवृत्तियों का, आलस्य और प्रमाद का, बैर और विनाश का, क्रोध और कुंठा का, राग और द्वेष का, हिंसा और कदाग्रह का अर्थात अंधकार हमारी राक्षसी मनोवृत्ति का प्रतीक है। प्रकाश हमारी सद् प्रवृत्तियों का, सद्ज्ञान का, संवेदना एवं करुणा का, प्रेम एवं भाईचारे का, त्याग एवं सहिष्णुता का, सुख और शांति का, ऋद्धि और समृद्धि का, शुभ और लाभ का, श्री और सिद्धि का अर्थात् दैवीय गुणों का प्रतीक है। यही प्रकाश मनुष्य की अंतर्चेतना से जब जागृत होता है, तभी इस धरती पर सतयुग का अवतरण होने लगता है।प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक देदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदासजी ने कहा था- ‘बाहर से तो कुछ न दीसे, भीतर जल रही जोत’। जो व्यक्ति उस भीतरी ज्योति तक पहुँच गए, वे स्वयं ज्योतिर्मय बन गए। जो अपने भीतरी आलोक से आलोकित हो गए, वे सबके लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया, वे अनंत शक्तियों के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दीवाली को मनाया, लोगों ने उनके उपलक्ष्य में दीवाली का पर्व मनाना प्रारंभ कर दिया।दीपावली का पर्व ज्योति का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म साक्षात्कार का पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है। भगवान महावीर ने दीपावली की रात जो उपदेश दिया उसे हम प्रकाश पर्व का श्रेष्ठ संदेश मान सकते हैं। भगवान महावीर की यह शिक्षा मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाली है। तथागत बुद्ध की अमृत वाणी ‘अप्पदीवो भव’ अर्थात ‘आत्मा के लिए दीपक बन’ वह भी इसी भावना को पुष्ट कर रही है। इतिहासकार कहते हैं कि जिस दिन ज्ञान की ज्योति लेकर नचिकेता यमलोक से मृत्युलोक में अवतरित हुए वह दिन भी दीपावली का ही दिन था। यद्यपि लोक मानस में दीपावली एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता जुड़ी है, वे अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है।यह बात सच है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा। ‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’ भक्त की अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल- इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करे
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