मंगलवार, 24 मार्च 2020

शक्ति की उपासना


जगत में शक्ति के बिना कोई काम सफल नहीं होता है। चाहे आपका सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, आपके विचार कितने ही सुंदर हों लेकिन अगर आप शक्तिहीन हैं तो आपके विचारों का कोई मूल्य नहीं होगा। विचार अच्छा है, सिद्धांत अच्छा है, इसीलिए सर्वमान्य हो जाता है ऐसा नहीं है। शक्ति ही जीवन है और जीवन ही शक्ति है
शक्ति उपासना व साधना के विविध प्रयोग अनादिकाल से साधको ने किये है,जिसके अनेक विधि-विधायें मिलती है शक्ति उपासना से लोकजीवन में सहज अभिष्ट सिद्धि प्राप्त होती रही है ।इस लिए इसके प्रति गहरा आकर्षण भी रहा है,इस मार्ग के अनुयायी बडे बडे साधु महात्मा हो गये है। परन्तु वर्तमान काल मे इस उपासना के रूप और स्वरूप मे प्राय: ऐसा परिवर्तन देखने मे आता है जिससे विदित होता है किस इस मार्ग के साधारण उपासक अधिकांश मे इस उपासना के वास्तविक रूप और स्वरूप से अपरिचित है। शक्ति का अर्थ सभी को पता है और उपासना का अर्थ पास मे होना अपने समीप समझना माना जाता है। शक्ति साधना का मतलब होता है कि उस साधन के समीप बैठा जाये या उस साधन को प्रयोग किया जाये जिससे शक्ति की प्राप्ति हो। शक्ति कोई भौतिक रूप मे देखने को भी मिलती है और आध्यात्मिक तरीके से भी महसूस की जाती है। मनुष्य के अन्दर जब ज्ञान के नेत्र खुल जाते है वह जड पदार्थो की सहायता से भौतिक शक्ति का निर्माण कर देता है जैसे सिलीकोन जो एक मिट्टी की तरह की राख ही है,इस राख के अन्दर वह तरह तरह के प्रयोग करने के बाद कम्पयूटर जैसी याद दास्त को संजोकर रखने वाली चीजों का निर्माण कर सकने मे समर्थ हो सकता है। शक्ति का बीज सबसे पहले मनुष्य के शरीर मे ही उपस्थिति होता है। इसी शक्ति की सहायता से माया को अपने आधीन किया जाता है। माया के आधीन होने पर जीव निर्बन्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। इस नजर से शक्ति उपासना को मुक्ति का साधन भी माना गया है। शक्ति के रूप और स्वरूप को बिना बताये या समझे उपासना का मतलब भी समझ मे नही आ सकता है। इसलिये शक्ति के रूप और स्वरूप को समझना बेहद जरूरी है।
मनुष्य शरीर एक लघु ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड मे रहने वाले सभी पदार्थ लघु रूप मे मनुष्य शरीर मे विद्यमान है। इस प्रकार से जो भी उपासक कुछ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह अपने साधनों से अपने अन्दर की शक्ति को इकट्ठा करने के बाद ही प्राप्त करता है। जो भी पदार्थों के रूप मे शरीर मे विद्यमान तत्व है उन्हे इकट्ठा करने के बाद ही वह उन्हे वश मे करता है। और उन पदार्थो को अपने वश मे लाकर प्रयोग मे लाता है। इस प्रकार से इस माया को जीतने की शक्ति प्राप्त करने का इच्छुक है वह शक्ति उपासना से अपने भीतर रहने वाले उस शक्ति तत्व को बल देकर उसे काम मे लाता है। जिससे माया उसके आधीन हो जाती है। इसके बाद जो महत्वपूर्ण बात है कि वे साधन कौन कौन से हैं जिनके द्वारा माया को अपने आधीन रखने की शक्ति को प्राप्त किया जाये ? उन्ही साधनो को जानना उन साधनो के रूप और स्वरूप को समझना ही शक्ति उपासना के रूप और स्वरूप को समझना माना गया है।
प्राचीन ऋषियों महात्माओं ने अपनी खोज के द्वारा दो प्रकार के शक्ति उपासना के रूप और स्वरूप पहिचाने है। जिसमे पहला होता है योग साधन और दूसरा होता है मंत्र जाप। योग के अन्दर अष्टांग योग लय योग सुरत शब्द योग राजयोग हंस योग आदि की अनगिनत शाखायें है। दूसरा साधन मंत्र जाप को माना है। आजकल की भागम-भाग जिन्दगी मे योग साधन को अपनाना बहुत ही कठिन है साथ ही आहार विहार का समय स्थान आदि भी नही मिलता है,कंकरीट के जंगल मे पेडों की हरियाली खोजने मे ही इतना समय लग जायेगा कि योग तो धरा रह जायेगा और रोजाना की जिन्दगी की जरूरते भी पूरी नही हो पायेंगी इसलिये मंत्र जाप का करना हर व्यक्ति की पहुँच मे है।मंत्रो के भी दो भाग बताये गये है एक तो वेदोक्त होता है और दूसरा साबर मंत्रो के रूप मे जाना जाता है। वैदिक मंत्रो का प्रयोग साबर मंत्रो से बहुत ऊँचा माना जाता है क्योंकि उनकी शुद्धता वेदों से परख कर ही प्रकट की जाती है जबकि साबर मंत्र स्थानीय लोगों द्वारा पता नही किस देवता आदि के लिये प्रयोग किये जाते है उनके बोलने की कला और भाव प्रकट करना वश की बात नही होती है। लेकिन वैदिक मंत्र को कहीं से भी खोजा भी जा सकता है और उसके भाव को भी तरह तरह के स्थान और कारणो से समझा भी जा सकता है। वैदिक मंत्र के जप से फ़ल भी शीघ्रता से मिलता है,परन्तु मन्त्र जाप की सफ़लता के लिये भी दो नियम जरूरी है। पहला तो मंत्र का उच्चारण शुद्ध होना चाहिये,उच्चारण मे जरा सी गल्ती से मिलने वाले लाभ की जगह पर हानि होने की अधिक सम्भावना भी रहती है। दूसरा नियम मंत्र जाप विधिपूर्वक होना चाहिये,बिना विधि के जाप करने से भी फ़ायदा की जगह पर नुकसान होने का कारण बन जाता है।
आजकल वैदिक मंत्रो का जाप प्राय: लुप्त सा हो गया है,साबर मंत्रो का प्रचलन है और उनकी विधि को सही रूप से नही समझने या समझाने वाले नही मिलने के कारण भी अगर कोई साधक मंत्रो का प्रयोग जाप मे लेता है तो वह अपनी मेहनत के द्वारा जाप भी करता है भाव भी बनाता है,लेकिन विधि आदि नही मिलने से वह जाप निष्फ़ल हो जाता है। लोग इसी कारण से मंत्र जाप को बेकार समझने लगते है और ढोंग आदि करने के नाम से पुकारने लगते है। इसके अलावा भी लोगो के द्वारा सुना जा सकता है कि जाप करना केवल अपने समय को खराब करना होता है। केवल मूर्ख लोग ही इनपर विश्वास करते है आदि बातें कहने के अलावा एक बात और कह दी जाती है कि भगवान शंकर ने इन मंत्रों को कील दिया है जिससे यह अपने प्रभाव को नही दे पाते। परन्तु यह सब कपोल कल्पित ही माना जाता है। यह सब बाते मूल सिद्धांतो को नही जानने के कारण ही कहीं जाती है। मंत्रो के जाप के प्रति सूक्ष्म विचार करना बहुत जरूरी है।यह बात सभी को पता है कि जो शब्द कहा जाता है उसका उच्चारण करते ही उसका प्रकम्पन वायु मंडल मे फ़ैल जाता है। जब मुँह से कोई उच्चारण किया जाता है तो बाहर के वायु मंडल मे और ह्रदय मे उच्चारण करने से शरीर के अन्दर के वायु मंडल मे प्रकम्पन पैदा होता है। इसलिये जो शब्द मुँह से उच्चारित किये जाते है वे कम असरकारक होते है,ह्रदय से उच्चारण किये गये शब्द काफ़ी समय तक शरीर के वायु मंडल मे फ़ैले रहते है। इस प्रकम्पन से जो चिन्ह वायुमंडल मे बनते है वे तब तक वायु मंडल मे घूमते रहते है जब तक कोई पदार्थ उनको अपने भीतर सोख नही लेता या वे फ़ैलते फ़ैलते इतने कमजोर नही हो जाते कि उनका भाव भी नकारात्मक के समान हो जाता है। किसी मंत्र की विधि पूर्वक की गयी शुरुआत का कारण अक्सर श्रद्धालुओं को समझने मे जब आने लगता है जब अक्समात मंत्र को शुरु करते ही बडी बडी जमुहाइयां आने लगती है आंखो से आंसू बहने लगते है। शब्दों से उत्पन्न होने वाला प्रकम्पन उच्चारण भेद के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के चिन्ह इसी प्रकार से बनाने लगता है जैसे जमुहाई आना आंसू निकलना किसी अंग विशेष का फ़डकने लग जाना,तन्द्रा का आने लगना आदि। इस बात को और अधिक गहराई से समझने के लिये आजकल प्रयोग मे लाये जाने वाले इलेक्ट्रोनिक साधनों को ही देख लीजिये। जैसे वायुमंडल मे चिन्ह बनते है उसी प्रकार से इलेक्ट्रोनिक डिवाइस मे चिन्ह बनाकर इसी प्रयोग को काम मे लाया जाता है। सीडी पेन ड्राइव कम्पयूटर की डिवाइस आदि मे जब भौतिक रूप से चिन्ह बन सकते है तो मानना ही पडेगा कि वायु मंडल मे उपस्थित ईथर मे भी चिन्ह बनते है।
किसी मंत्र के जाप से क्या फ़ल मिलता है यह बात उसका उपयोग किये बिना नही पता लग सकती है। यह बात जरूरी है कि जो वेदो मे लिखा गया है वह अगर विधि पूर्वक से जाप मे लाया जायेगा तो फ़ल सदा ही एकसा ही निकलेगा। कारण ऋषि मुनि साधक योगी महायोगी जो भी कहते आये है वह कभी गलत नही हो सकता है। अगर मंत्र जाप के बाद कोई फ़ल नही मिल रहा है तो अवश्य समझ लेना चाहिये कि उस मंत्र के साधन या विधि मे कोई गलती हो गयी है।
संसार की किसी भी भाषा मे जो शब्द बनते है उनके उच्चारण के पांच स्थान ही हैं। होंठ जीभ दांत तालू और कण्ठ। इन स्थानो मे पंच तत्व विद्यमान होते है। जैसे होंठ पृथ्वी तत्व है,जीभ जल तत्व है,दांत अग्नि तत्व है,तालू वायु तत्व है और कंठ आकाश तत्व का स्थान है। जब मंत्रो के ऐसे अक्षर या शब्द जिनका उच्चारण होंठों से होता है तो वे पृथ्वी तत्व को सबल बनाने मे सहायक होते है,लेकिन पृथ्वी तत्व को प्राप्त करने का भी समय होता है। अगर पृथ्वी तत्व के समय में पृथ्वी तत्व की प्राप्ति के मंत्रो का जाप किया जाता है तो पृथ्वी तत्व की प्राप्ति हो जायेगी और अगर पृथ्वी तत्व को जल तत्व के समय मे जाप किया जाता है तो पृथ्वी तत्व के अन्दर जल तत्व का समावेश हो जाने से बजाय पृथ्वी तत्व के दलदल की प्राप्ति हो जायेगी,जो हानिकारक भी हो सकती है,अथवा पृथ्वी तत्व के समय अग्नि तत्व के समय मे या मिश्रण कर दिया गया तो वह गर्म आग की तरह से गर्म रेत का प्रभाव देने लगेगा। जैसे मानसिक परेशानियों के समय में ज्योतिष से चन्द्रमा मे बढोत्तरी हो जाती है,उस समय मे अगर चन्द्रमा जो जल तत्व का कारक है,उसे कम करने के लिये केवल पृथ्वी तत्व का प्रयोग करना पडेगा,और बुध ग्रह के मंत्र जैसे ऊँ ब्रां ब्रीं ब्रौं सह बुद्धाय नम: का जाप करने से जल तत्व की कमी होने लगेगी।शरीर रूपी ब्रह्माण्ड के अन्दर तीन ब्रह्माण्ड बताये गये है। शरीर मे ऊपर का भाग पराब्रह्माण्ड कहा गया है,बीच का भाग स्वब्रह्माण्ड कहा गया है और नीचे का भाग अपराब्रह्माण्ड बताया गया है। स्वब्रह्माण्ड का सम्बन्ध विराट तत्व से पराब्रह्माण्ड का सम्बन्ध विद्युत तत्व से और अपराब्रह्माण्ड का सम्बन्ध शून्य तत्व से बना हुआ है। स्व के अन्दर कारण शक्तियां उपस्थित होती है और परा मे सूक्ष्म शक्तियां उपस्थित है,अपरा मे स्थूल शक्तियां उपस्थित होती है। मंत्र के जिन अक्षरो या शब्दो का प्रकम्पन होता है उनसे विराट तत्व सम्बन्धित कारण शक्तियों का विकास होता है,जिनसे परा मे प्रकम्पन होता है उनसे विद्युत सम्बन्धित सूक्ष्म शक्तियों का प्रकम्पन होता है। और जिनसे अपरा मे प्रकम्पन होता है उनसे शून्य तत्व सम्बन्धित स्थूल शक्तियों का विकास होता है। उदाहरण के लिये "राम" शब्द के उच्चारण से पराब्रह्माण्ड में प्रकम्पन होता है। इस शब्द मे र अक्षर के कारण को सबसे पहले तालू को जीभ स्पर्श करती है,तालू को वायु तत्व से जोड कर माना गया है,साथ ही जीभ जो जल तत्व की कारक है उससे वायु तत्व का मिश्रण होना जल तत्व को वायु तत्व के द्वारा सूक्ष्म तरीके से उठाने की क्षमता है,जैसे समुद्र के जल मे लहरे आने पर वायु के द्वारा समुद्र के पानी को अवशोषित कर लिया जाता है और हवा मे बादलो के रूप मे वही पानी सिमटा हुआ दिखाई देने लगता है। अक्षर र मे बडे आ की मात्रा लगाते ही कंठ से मिलने वाले आकाश तत्व का प्रवेश हो जाता है और जब म को कहा जाता है तो पृथ्वी तत्व के मालिक होंठ काम करने लगते है। होंठ को बन्द करने के बाद जो ध्वनि निकलती है वह नासिका से निकलती है जो पराब्रह्माण्ड के रूप मे एक सूक्ष्म विद्युत तरंग के रूप मे प्रसारित होती है। इस प्रकार से ह्रदय से लगातार राम शब्द को निकालते रहने से दैहिक दैविक और भौतिक तीनो शक्तियों का कारण शरीर मे पैदा हो जाता है और शरीर राममय हो जाता है। इसी प्रकार से अल्लाह शब्द मे कंठ तालू और जीभ का प्रयोग किया जाता है,जो आकाश तत्व जल तत्व को लेकर वायु तत्व के द्वारा आकाश तत्व मे ही समा जाता है। ईशा शब्द में भी आकाश तत्व को कंट्रोल करने के बाद जल तत्व को वायु तत्व से कन्ट्रोल करने के बाद आकाश तत्व मे सम्मिलित किया गया है। इन शब्दो के उच्चारण से सूक्ष्म शक्तियां जागृत होती है। ह्रीं शब्द के उच्चारण से स्वब्रह्माण्ड में प्रकम्पन होता है,अत: इस शब्द के उच्चारण से कारण शक्तियां जागृत हो जाती है,ध्री शब्द के उच्चारण से अपराब्रह्माण्ड मे प्रकम्पन होता है जिससे स्थूल शक्तियां जागृत हो जाती है। इस प्रकार की शक्तिया जब पूर्ण रूप से जागृत हो जाती है तब यह साधक के भाव के अनुसार एक विशेष रूप धारण करने के बाद उसके सामने प्रकट होने लगती है। साधक शक्ति के उस रूप से जो भी चाहत रखता है वह चाहत उस शक्ति के द्वारा उसे प्रदान की जाती है और साधक का जाप सफ़ल होने लगता है,परन्तु एकाग्र होकर और इन्द्रियों को जीतने के बाद ही यह शक्तियां जागृत होती है।
साबर मंत्रो के भी दो भेद होते है एक पैशाचिक और एक दैविक। पैशाचिक शक्ति के लिये इतना ही कहा जाता है कि वह कोई भी रूप लेकर प्रकट नही होती है। साधक के अन्दर उन शक्तियों का समावेश हो जाता है और वह मनचाहे तरीके से अपने कार्यों को करवाने लगता है। पैशाचिक शक्तियों मे जो भी कार्य करना होता है वह कार्य के बदले मे कुछ प्राप्त करने की चाहत रखती है अगर किये गये कार्यों की एवज मे कुछ दिया नही गया तो साधक के शरीर से भी वह शक्तियां चाहे गये तत्व को प्राप्त कर लेती है,इसलिये ही पैशाचिक शक्ति को प्रयोग करने वाले साधक अक्सर बुरी मौत से मरते हुये देखे जाते है। लेकिन दैविक शक्तिया कुछ बदले मे नहीं मांगती है वे केवल भला करने के लिये ही अपने रूप को प्रकट करती है और भला करने के बाद अपना रूप छुपा लेती है। इसके साथ यह भी माना जाता है कि अगर एक साधक दूसरे साधक की सिद्धि को नष्ट करने की कोशिश करता है तो उसकी स्वयं की सिद्धि नष्ट हो जाती है। लेकिन योग और ज्ञान मार्ग के उपासकों की सिद्धि कभी नष्ट नही होती है यह गीता मे भी बताया गया है। हमेशा मंत्र जाप को विधिविधान से ही करना चाहिये और इच्छित परा स्व और अपरा ब्रह्माण्ड के अनुसार ही मंत्रों का चुनाव करना चाहिये,तभी साधना सफ़ल हो सकती है।www.acharyarajesh.in

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