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दिन का स्वामी सूर्य रात का स्वामी शनि
दिन का स्वामी सूर्य रात का स्वामी शनि
दिन को कामकाज करना चाहिये रात को सोना चाहिये
सूर्य दिन का स्वामी है,शनि रात का स्वामी है,सूर्य शरीर मे फ़ुर्ती और ताकत को भरने वाला है और जब शरीर कार्य करते समय थक जाता है तो शनि शरीर को आराम देने के लिये रात को प्रदान करता है,दिन की थकान को रात को सोने बाद समाप्त हो जाती है। दिन के तीन भाग मुख्य माने जाते है,पहला दिन का उदय होना दूसरा दिन का मध्य जिसे दोपहर कहते है और तीसरा दिन की समाप्ति का समय जिसे सन्ध्या काल काल कहा जाता है,दिन के उदय होने और दिन के समाप्त के समय को शनि और सूर्य की मिलन की सीमा में लाते है,सुबह को शनि जीव को सूर्य को सौंपता है,और सन्ध्या को सूर्य जीव शनि को सौंपता है। शनि के द्वारा जातक के अन्दर जो तत्व भरे जाते है उन्हे सूर्य उपभोग में लेता है और दिन को जो तत्व शरीर मे भरे जाते है वे शनि रात को उपयोग करता है। जैसे दिन को किये जाने वाले कार्यों से शरीर मे फ़ुर्ती रहती है और शाम होते होते शरीर की ककक थक जाती है,थकी हुयी ग्रंथियों की रूप रेखा और कार्य करने की क्षमता को अगर थका हुआ ही रखा जाये तो जीव दूसरे दिन कार्य करने के लायक ही नही रहेगा,इसलिये सूर्य शनि को शरीर सौप देता है,शनि उन थकी हुयी ग्रंथियों को अपनी शक्ति से फ़िर से संभालता है जो ग्रंथिया निढाल होकर कार्य करने से बिलग हो गयी होती है उन्हे शरीर से शनि के तत्वों को प्रदान किया जाता है जैसे हाथ का थक जाना और जब रात होती है तो शनि की आराम करने वाली अवस्था में उस हाथ को कार्यविहीन करने के बाद जमे हुये खून के थक्के को एन्जाइम के द्वारा फ़िर हटाना और हाथ के अन्दर दुबारा से स्फ़ूर्ति को भरना जो नशे काम नही कर पाती है खून की चाल से दुबारा से काम करने के काबिल बनाने का काम शनि का ही होता है।इस प्रकार से शनि जब कार्य करने की शक्ति को पूरा करता है तो सूर्य सुबह को तरोताजा शरीर से कार्य करवाने के लिये अपने अनुसार नयी सोच और नयी रास्ता देता है,जिससे जीव अपने पालन पोषण के लिये संसार के कार्य करने के लिये और नये निर्माण के लिये अपने शरीर को संसार के हवाले कर देता है शाम तक वह पूरी शक्ति से कार्य करता है और दुबारा से शनि के पास चला जाता है इस प्रकार से जीव के क्रम को शनि और सूर्य अपने अपने अनुसार पालते है,जैसे ही जीव की शक्ति का खात्मा हो जाता है जीव की गति को दूसरे जीवन में ले जाने के लिये अन्य ग्रह अपना अपना कार्य करने के बाद शांति देते है।जन्म लेना ही सूर्य है और मृत्यु को प्राप्त करना ही शनि है
तमसो मा ज्योतिर्गमय कहावत के अनुसार अन्धकार से निकलकर प्रकाश में जाने का उदाहरण दिया गया है,बन्द आंखों को खोलने के बाद जब जीव को चेतना मिलती है तो उसे प्रकाश की प्राप्ति होती है। जैसे ही प्रकाश की प्राप्ति होती है जीव अपनी चेतना को जगत के हित के लिये उपयोग में लाने की क्रियायें करने लगता है,इन क्रियाओं में जो शक्ति मिलती है वह दूसरों के हित के लिये ही मानी जाती है,देखने में भले ही सूर्य के सामने किसी का अहित किया जाता हो लेकिन उसे किसी न किसी प्रकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हित ही मिलता है। जीव अपनी शक्ति को प्राप्त करने के लिये तरह तरह की हिंसा को करता है,जैसे एक शेर हिरन को मारता है,हिरन का रूप शेर के लिये भोजन के लिये होता है उसी हिरन के लिये वनस्पति भोजन के रूप में होती है,वनस्पति के लिये भोजन के रूप में धरती के अन्दर के तत्व जो कीणों मकोडों और सडे हुये जीवाश्मों के रूप में होते है,जो कृषि विज्ञान में ह्यूमस के रूप में माने जाते है होते है कीणों मकोडों के लिये दूसरे तरह की प्राणी जगत को भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है,का भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से देखने में तो शेर हिरन के लिये हिंसक होता है लेकिन हिरन भी वनस्पति के लिये हिंसक होता है,यह क्रम लगातार चला करता है,सूर्य अपनी शक्ति से प्रकृति को पैदा करता है और प्रकृति अपनी शक्ति से जीवों को पैदा करती है जीवन चक्र को चलाने के लिये एक दूसरे की हिंसा को करती है,उस हिंसा को समझ से दूर रखने के लिये शनि का प्रयोग होता है,कारण अगर सामने हर जीव की हिंसा होती है और शनि के द्वारा उसे दुबारा से पूर्ण नही किया जाता है तो दूसरे दिन जीव के लिये आहार मिलना नही होगा और संसार चक्र रुक जायेगा। इस नही रुकने देने की क्रिया को पूरा करने के लिये शनि और सूर्य दोनो ही अपनी अपनी गति को निर्बाध रूप से चलाये जा रहे है। प्रकट करना सूर्य का काम होता है और समाप्त करना शनि का कार्य होता है,जो प्रकट होता है वह जन्म है और जो समाप्त होता है वह मृत्यु है।
जीवन की गति गुरु के द्वारा दिये गये मूल्य पर निर्भर है
सूर्य के द्वारा जीवन को दिया जाता है लेकिन गुरु उस जीव का मूल्य प्रदान करता है,जैसे जब जीव ने जन्म लिया उस समय जीव के शरीर को पूर्ण करने वाले कौन कौन से तत्व थे जो शरीर को पूर्णता और कमी की सीमा को दर्शाते है,जीव जन्म लेने के बाद कितनी निर्माण करने की ताकत को रखता है वह अपनी बुद्धि को कैसे प्रयोग कर सकता है उसे जो शक्ति मिली है उसे वह कहां और कैसे प्रयोग कर सकता है,उसके द्वारा प्रयोग करने वाली शक्ति का मूल्य विकास के लिये किया जाता है तो जीव का मूल्य बढ जाता है एक जीव का कार्य दूसरे जीवों केलिये बहुत समय तक और बहुत प्रकार से फ़ायदा देने वाला होता है तो जीव की चाहत बढ जाती है और जीव का मूल्य बढ जाता है उस जीव की रक्षा करने के लिये प्रकृति अपने अपने प्रकार से सहायता करती है,जीव को शक्ति से जीव को बुद्धि से और जीव को प्राकृतिक रूप से अपनी सहायता करने की हिम्मत प्रकृति देती है।
गुरु के साथ सूर्य का होना जीव का चेतन होना और दिन का प्रकार माना जाता है
गुरु के साथ जब सूर्य का प्रकट रूप मिलता है तो जीव चेतन अवस्था के कारकों में आजाता है जीव के अन्दर आत्मा का संयोग मिल जाता है जीव की बुद्धि प्रखरता की सीमा से ऊपर चली जाती है,वह दूसरों के हित और अनहित की बात को सोचने और करने लगता है उसे केवल अपने शरीर की सन्तुष्टि से लगाव नही होकर दूसरे की भलाई के लिये भी अपनी गति अपने आप ही बनानी पडती है,उसे उस भलाई करने के लिये अलग अलग कारक अपनी अलग अलग शक्ति से सहायता भी करने लगते है। जब तक जीव चेतन अवस्था में अपने प्रखर ज्ञान को प्रकट करने के बाद उस ज्ञान को प्रयोग में लाने लगता है उसका दिन माना जाता है,जैसे ही तामसी कारणों से जीव अपने ज्ञान को अज्ञान के रूप में प्रकट करने लगता है जीव की रात मानी जाती है।
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