'मित्रो नवरात्र' शब्द से नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियों) का बोध होता है। इस समय शक्ति के नवरूपों की उपासना की जाती है। 'रात्रि' शब्द सिद्धि का प्रतीक हैहमारे ऋषि-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो ऐसे उत्सवों को 'रात्रि' न कहकर 'दिन' ही कहा जाता लेकिन नवरात्र के दिन, 'नवदिन' नहीं कहे जाते।हमारे मनीषियों ने वर्ष में 2 बार नवरात्रों का विधान बनाया है। विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से 9 दिन अर्थात नवमी तक और इसी प्रकार ठीक 6 मास बाद आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के 1 दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है।इन नवरात्रोंमे साघक अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। लेकिन आजकल अधिकांश उपासक शक्ति पूजा रात्रि में नहीं, पुरोहित को दिन में ही बुलाकर संपन्न करा देते हैं। सामान्य भक्त ही नहीं, पंडित और साधु-महात्मा भी अब नवरात्रों में पूरी रात जागना नहीं चाहते और न ही कोई आलस्य को त्यागना चाहता है। बहुत कम उपासक आलस्य को त्यागकर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे जाते हैं।
मनीषियों ने नवरात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इस बात से सहमत है। हमारे ऋषि-मुनि आज से कितने ही हजारों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाएगी किंतु रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। रेडियो इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है, जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है।वैज्ञानिक सिद्धांत यह भी है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं, उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है इसीलिए ऋषि-मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। यह रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है। जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं, उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि, उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है। मित्रों सही मायने में यह समय आत्म निरीक्षण और अपने स्रोत की ओर वापिस जाने का समय है। परिवर्तन के इस काल के दौरान प्रकृति भी पुराने को झाड़ कर नवीन हो जाती है; जानवर शीतनिद्रा में चले जाते हैं और बसंत के मौसम में जीवन वापिस नए सिरे से खिल उठता है।विज्ञान के अनुसार पदार्थ अपने मूल रूप में वापिस आकर फिर से अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है बल्कि यह चक्रीय है, प्रकृति के द्वारा हर वस्तु का नवीनीकरण हो रहा है- कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है। नवरात्रि का त्यौहार अपने मन को वापिस अपने स्रोत की ओर ले जाने के लिए है।प्रार्थना, मौन, उपवास और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं क्योंकि वह भी नवीनता और ताज़गी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है- स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को, और कारण शरीर को। उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थ से मुक्त हो जाता है, मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है, और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्मसाक्षात्कार मिलता है।यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है। नवरात्रि प्राणों का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता), शुम्भ-निशुम्भ (अहंकार और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं। जड़ता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियाँ (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुँधली दृष्टि (धूम्रलोचन्) को केवल प्राण ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनन्दित रहने का भी एक अवसर है। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है, हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार करते हैं। नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के हैं, दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्त्व के लिये हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सत्वगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। जब भी जीवन में सत्व बढ़ता है नवरात्र का विज्ञान, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयदश्मी द्वारा मनाया जाता है।
यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गये हैं। नवरात्रि के दौरान देवी माँ की पूजा करके हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को बढ़ाते हैं। हालाकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनायी जाती है, परंतु वास्तविकता में यह लड़ाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा अष्टावक्र ने कहा था - लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।हालाकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है, लेकिन उनके बीच अलगाव की भावना ही द्वंद का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवंत है। जैसे बच्चों को सब कुछ जीवित ही जान पड़ता है, ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी माँ या शुद्ध चेतना ही हर नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है।काली माँ प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत यथार्थ को मानकर मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।देवी माँ को सिर्फ बुद्धि के रूप में ही नहीं जाना जाता, बल्कि भ्रांति के रूप में भी; वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) है, वह भूख (क्षुधा) भी हैं और प्यास (तृष्णा) भी है। सम्पूर्ण सृष्टि में देवी माँ के इस दोहरे पहलू को पहचान कर एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पश्चिम में चले आ रहे सदियों के पुराने धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।शेष अगले लेख में आचार्य राजेश
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