Diseases ज्योतिष द्वारा रोग की पहिचान
ज्योतिष शास्त्र भविष्य दर्शन की आध्यात्मिक विद्या है। भारतवर्ष में चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का ज्योतिष से बहुत गहरा संबंध है। होमियोपैथ की उत्पत्ति भी ज्योतिष शास्त्र के आधार पर ही हुआ है I जन्मकुण्डली व्यक्ति के जन्म के समय ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह नक्षत्रों का मानचित्र होती है, जिसका अध्ययन कर जन्म के समय ही यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को उसके जीवन में कौन-कौन से रोग होंगे। चिकित्सा शास्त्र व्यक्ति को रोग होने के पश्चात रोग के प्रकार का आभास देता है।चन्द्रमा के प्रकाश और वायु से धरती पर रोगो को पैदा करने वाले कारक और निवारण के कारक पैदा होते है। जब चन्द्रमा और वायु के कारक गुरु का किसी खराब ग्रह से योगात्मक प्रभाव मिलता है तो चराचर जगत के साथ साथ वनस्पतियों मे भी उनके खराब गुण ही विद्यमान हो जाते है। इसके लिये कहा भी गया है कि ऋतु के अनुसार भोजन लेने से और जो भोजन ऋतु के हिसाब से नही लिया जा सकता है के परित्याग से रोगो का पैदा होना नही मिलता है लेकिन जब जब राहु गुरु चन्द्रमा के साथ साथ अपना प्रभाव देगा वह भाव के अनुसार रोग को पैदा करने के लिये माना जायेगा। मन का कारक चन्द्रमा है और मन के रोगी होने पर शरीर रोगी हो जाता है और मन के प्रसन्न रहने पर शरीर रोग से दूर रहता है। उसी प्रकार से गुरु वायु का और प्राण वायु को संचालित करने का काम करता है जैसे ही गुरु का मिलना राहु या इसी प्रकार के ग्रह शनि केतु मंगल आदि ग्रहों के रोगी भाव के ग्रह के साथ युति लेने से रोग की शुरुआत हो जाती है। चन्द्रमा के लिये शीतकाल का समय बहुत ही अच्छा माना जाता है और इसी लिये देखा होगा कि शरद ऋतु की पूर्णिमा का चन्द्रमा रोगो से लडने की शक्ति को रखता है और लोग इस शरदीय पूर्णिमा को नदियों मे सरोवरो मे स्नान भी करते है और खीर आदि बनाकर रात को चन्द्रमा के सामने रखते है सुबह को उसका सेवन करते है जिससे चन्द्रमा के द्वारा दिये गये रोग निदान की शक्ति को ग्रहण किया जाता है। एक बात और भी देखी होगी कि पूर्णिमा के दिन मन भी बहुत प्रसन्न रहता है और अमावस्या के दिन मन की गति भी बहुत कमजोर मानी जाती है,जो काम अमावस्या को शुरु करने पर नही हो पाता है वह पूर्णिमा के दिन शुरु करने से पूरा हो जाता है। राजस्थान मे देखा भी गया है कि अमावस्या को मेहनत का काम करने वाले कारीगर इमारतो का काम करने वाले ठेकेदार काम को बन्द ही रखते है और काम को इसलिये नही करते है कि वे मानते है कि यह दिन उनके पूर्वजो का है और पूर्वजो के लिये वे काम नही करते है इसके पीछे जो वैज्ञानिक कारण सामने आता है वह केवल यही है कि मेहनत के काम को करने के बाद अगर अमावस्या को किया जाता है तो वह काम अगर खराब हो जाता है तो दुबारा से करना पडेगा और किये गये काम की मेहनत के साथ साथ उसका फ़ल भी खराब हो जायेगा। इसी प्रकार से समुद्र के अन्दर होने वाले बदलाव को भी इन्ही तिथियों मे देखा जा सकता है। रोगो की वृद्धि और कमी भी इन्ही तिथियों मे देखी जा सकती है। चन्द्रमा का रोगो से बहुत सम्बन्ध होता है इस बात को एक प्रकार से और भी देखा जा सकता है कि अगर रात को बच्चा जन्म लेता है तो बच्चे की आंखे नीली या कालिमा लिये होती है जबकि दिन को जन्म लेने वाले बच्चे की आंखो की पुतली का रंग बिलकुल सफ़ेद होता है यही बात अगर आप कर्क के चन्द्रमा और वृश्चिक के चन्द्रमा से देखेंगे तो कर्क के चन्द्रमा मे जन्म लेने वाले जातक की दांतो की पहिचान बहुत ही सुन्दर व चमकीली होती है जबकि चन्द्रमा के वृश्चिक राशि मे होने से दांतो की पहिचान गन्दी और पायरिया आदि से ग्रस्त तथा टेढी मेढी होती है,उसी प्रकार से मीन के चन्द्रमा मे जातक के दांत लम्बे होते है वृष के चन्द्रमा के दांत चौडे और सामने के चौकोर होते है।
"ज्योतिष के अनुसार यह भी कहा जाता है कि दवाई रत्न ग्रह नक्षत्र तारा आदि जब भाग्य सही होता है तो वह सभी सफ़ल हो जाते है और जब दुर्भाग्य का समय होता है तो वे सभी बेकार हो जाते है" इसलिये रोगो के लिये और इलाज के लिये सबसे पहले भाग्य का देखना जरूरी होता है और भाग्य सही नही है तो किसी भी प्रकार से रोग भी ठीक नही होता है और रोगी को कष्ट भी मिलता है।"जब यदि देवयोग से शनि रोग का कारक बनता हो, जो जातक को लम्बे समय तक पीड़ित रखता है। यह और एक दर्द भी है कि राहु जब किसी रोग का जनक होता है, तो बहुत समय तक तो उस रोग की जांच (डायग्नोसिस) ही नहीं हो पाती है। डाक्टर यह समझ ही नहीं पाता है कि जातक को क्या बीमारी है? और ऐसी स्थिति में रोग अपेक्षाकृत अधिक अवधि तक चलता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी रोगों से अवश्य पीड़ित होता है। कुछ व्यक्ति कुछ विशेष समय में अथवा माह में ही प्रतिवर्ष बीमार हो जाते है। ये सभी तथ्य प्रायः जन्म पत्रिका में ग्रहों की भावगत एवं राशिगत स्थितियों और दशा, अन्तर्दशा पर निर्भर करते हैं। इसके अतिरिक्त कई बीमारियां ऐसी हैं, जो होने पर बहुत कम दुष्प्रभाव डाल पाती हैं, जबकि कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जो जब भी जातक विशेष को होती हैं, तो बहुत नुकसान पहुंचाती है। कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि बीमारी होती तो हैं लेकिन उसकी पहचान भली प्रकार से नहीं हो पाती है। उन सभी प्रकार के तथ्यों का पता जातक की कुंडली को देखकर लगाया जा सकता है।आयुर्वेद शास्त्र में अनिष्ट ग्रहों का विचार कर रोग का उपचार विभिन्न रत्नों का उपयोग और रत्नों की भस्म का प्रयोग कर किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोगों की उत्पत्ति अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्वजन्म के अवांछित संचित कर्मो के प्रभाव से बताई गई है। अनिष्ट ग्रहों के निवारण के लिए पूजा, पाठ, मंत्र जप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न धारण आदि साधन ज्योतिष शास्त्र में उल्लेखित है।
ग्रहों के अनिष्ट प्रभाव दूर करने के लिये रत्न धारण करने की बिल्कुल सार्थक है। इसके पीछे विज्ञान का रहस्य छिपा है और पूजा विधान भी विज्ञान सम्मत है। ध्वनि तरंगों का प्रभाव और उनका वैज्ञानिक उपयोग अब हमारे लिये रहस्यमय नहीं है। इस पर पर्याप्त शोध किया जा चुका है और किया जा रहा है। आज के भौतिक और औद्योगिक युग में तरह-तरह के रोगों का विकास हुआ है। रक्तचाप, डायबिटीज, कैंसर, ह्वदय रोग, एलर्जी, अस्थमा, माईग्रेन आदि औद्योगिक युग की देन है। इसके अतिरिक्त भी कई बीमारियां हैं, जिनकी न तो चिकित्सा शास्त्रियों को जानकारी है और न उनका उपचार ही सम्भव हो सका है। आचार्य राजेश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें