सोमवार, 15 दिसंबर 2025

महाविद्या तारा और गुरु-मंगल: मोक्ष का महाद्वार,,,,,,,,,,,............,. गई

महाविद्या तारा और गुरु-मंगल: मोक्ष का महाद्वार,,,,,,,,,,,............,.

गुरु और मंगल की युति को केवल ज्योतिषीय योग मानना एक भूल होगी। दार्शनिक दृष्टि से, यह 'प्रज्ञा' और 'वेग' का महासंग्राम है। मंगल 'गति' है, और गुरु 'विस्तार' है। जब प्रचंड गति को असीमित विस्तार मिलता है, तो विस्फोट अनिवार्य है। जन्म कुंडली का बारहवां भाव इस विस्फोट के लिए उस 'महाशून्य' का कार्य करता है, जहाँ भौतिक अस्तित्व का अंत और आध्यात्मिक अस्तित्व का आरंभ होता है। यहीं माता तारा की प्रासंगिकता सिद्ध होती है, क्योंकि अनियंत्रित ऊर्जा को केवल 'शून्य' ही अपने भीतर समा सकता है।

हलाहल: कर्मों का ताप और समर्पण

समुद्र मंथन से निकला हलाहल केवल विष नहीं था, वह सृष्टि के मंथन से उत्पन्न हुआ भीषण 'घर्षण-ताप' था। जब महादेव ने उस हलाहल को कंठ में धारण किया, तो वह चेतना द्वारा पीड़ा को साक्षी भाव से देखने का प्रयोग था। किंतु, जहाँ पौरुष अपनी चरम सीमा पर जाकर भी असमर्थ हो जाता है, वहाँ 'आदिशक्ति' को हस्तक्षेप करना पड़ता है। माता तारा शमशान की अधिष्ठात्री हैं—वह स्थान जहाँ पंचतत्व अपने मूल रूप में लौटते हैं। उन्होंने शिव को स्तनपान कराकर यह तर्क स्थापित किया कि "अग्नि को जल से नहीं, बल्कि वात्सल्य और समर्पण से ही शांत किया जा सकता है।" यह संघर्ष का अंत नहीं, बल्कि ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन (रूपांतरण) था।

बारहवां भाव: अहम् का विसर्जन

कुंडली का बारहवां भाव 'व्यय' का है। प्रश्न यह है—किसका व्यय? धन का नहीं, बल्कि 'अहंकार' का। मंगल 'मैं हूँ' का उद्घोष है, जबकि बारहवां भाव 'मैं नहीं हूँ' का परम सत्य है। जब मंगल यहाँ स्थित होता है, तो जीव के भीतर एक भीषण तपन जन्म लेती है। यह तपन और कुछ नहीं, बल्कि जीवात्मा का अपनी ही नश्वरता से संघर्ष है।

'अन्त गति सो मति'—यह सूत्र जीवन का सार है। जीवन भर हम जिस स्पंदन और भाव में रहते हैं, मृत्यु के क्षण में हमारी चेतना उसी आयाम में यात्रा करती है। जीव जीवन भर शोर मचाता है, ताकि उसे उस सन्नाटे का सामना न करना पड़े जो उसके भीतर प्रतीक्षा कर रहा है।

तत्वों की घर वापसी: प्रकृति का ऋण-शोधन

श्मशान में जलती चिता या मिट्टी में विलीन होती देह—यह दृश्य सामान्य नेत्रों को वीभत्स लग सकता है, किंतु दार्शनिक दृष्टि से यह 'ब्रह्मांडीय न्याय' की प्रक्रिया है। इसे इस तर्क से समझें: हमारा शरीर प्रकृति से लिया गया एक 'प्राकृतिक ऋण' है। मृत्यु के बाद शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाएं या उसका विखंडन, उस ऋण की अदायगी मात्र है।

वह उष्णता जो कभी रक्त में दौड़ती थी, अब विखंडित होकर वापस ब्रह्मांड में लौट रही है। यह 'सड़ना' नहीं है, यह पंचतत्वों का 'ऋण-शोधन' है। मंगल की जो ऊर्जा जीवन भर शरीर को 'एक' बनाए रखती थी, अब वही ऊर्जा विसर्जन के माध्यम से मुक्त हो रही है। यह विनाश नहीं, बल्कि 'तत्वों की घर वापसी' का उत्सव है।

रक्त की उष्णता और आत्मिक शीतलता

रक्त की गर्मी हमें जीवित रखती है, लेकिन यही गर्मी जब विकृत होती है, तो क्रोध और वासना बनती है। यह गर्मी हमें 'संसार' से जोड़ती है। इसके विपरीत, गुरु वह 'शीतलता' है जो हमें 'स्वयं' से जोड़ती है। गुरु-मंगल की यह युति जातक के समक्ष एक यक्ष प्रश्न खड़ा करती है:

"क्या तुम अपनी ऊर्जा का उपयोग संसार में अपनी पहचान बनाने के लिए करोगे, या उस पहचान को मिटाकर माता तारा के विराट शून्य में विलीन होने के लिए?"

माँ तारा उस तपित जीव को अपनी गोद में लेकर यह अंतिम सत्य समझाती हैं—"तेरा अस्तित्व उस बूँद की तरह है जो सागर में गिरकर खोती नहीं, बल्कि स्वयं सागर बन जाती है।"

आचार्य राजेश

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