शुक्रवार, 3 मार्च 2017

Holli मित्रो कुछ मित्रो ने होली पर लिखने की माँग की है मित्रो फाल्गुन जहां हिन्दू नव वर्ष का अंतिम महीना होता है तो फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष की अंतिम पूर्णिमा के साथ-साथ वर्ष का अंतिम दिन भी होती है। फाल्गुनी पूर्णिमा का धार्मिक रूप से तो महत्व है ही साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक नजरिये से भी बहुत महत्व है। पूर्णिमा पर उपवास भी किया जाता है जो सूर्योदय से आरंभ कर चंद्रोदय तक रखा जाता है। वहीं इस त्यौहार की सबसे खास बात यह है कि यह दिन होली पर्व का दिन होता है जिसे बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता है और तमाम लकड़ियों को इकट्ठा कर सभी प्रकार की नकारात्मकताओं की होली जलाई जाती है। दिवाली के बाद होली दूसरा बड़ा त्योहार होता है। होली को रंगों के त्योहार के नाम से भी जाना जाता है। होली का त्योहार दो दिन मनाया जाता है, एक दिन होलिका दहन के रुप में और अगले दिन धुलंडी के रुप में। पूरे देश में होली का आनंद इसी दिन लिया जाता है। भारत में इस साल होलिका दहन 12 मार्च को किया जाएगा और 13 मार्च को लोग रंगों के इस त्योहार का आनंद उठाएंगे। होली की कहानी का प्रतीक देखें तो हिरण्यकश्यप पिता है। पिता बीज है, पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप जैसी दुष्टात्मा को पता नहीं कि मेरे घर आस्तिक पैदा होगा, मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी। इसका विरोधाभास देखें। इधर नास्तिकता के घर आस्तिकता प्रकट हुई और हिरण्यकश्यप घबड़ा गया। जीवन की मान्यताएं, जीवन की धारणाएं दांव पर लग गई 'हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है -हर 'आज' 'बीते कल' के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा करता है। अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है। हिरण्यकश्यप मनुष्य के बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद दो नहीं हैं - प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटने वाली दो घटनाएं हैं। जब तक मन में संदेह है, हिरण्यकश्यप मौजूद है। तब तक अपने भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को हम पहाड़ों से गिराऐगे, पत्थरों से दबाऐगे, पानी में डुबाऐगे, आग में जलाऐगे- लेकिन हम जला न पाऐगे। जहां संदेह के राजपथ हैं; वहां भीड़ साथ है। जहां श्रद्धा की पगडंडियां हैं; वहां ुहम एकदम अकेले हो जाते है एकाकी। संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं है। संदेह मिटा सकता है, बना नहीं सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है। आस्तिकता और श्रद्धा कितनी ही छोटी क्यों न हो, शक्तिशाली होती है। प्रह्लाद के भक्ति गीत हिरण्यकश्यप को बहुत बेचैन करने लगे होंगे। उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है- नकार, मिटा देने की इच्छा। नास्तिकता विध्वंसात्मक है, उसकी सहोदर है आग। इसलिए हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि, होलिका। लेकिन अग्नि सिर्फ अशुभ को जला सकती है, शुद्ध तो उसमें से कुंदन की तरह निखरकर बाहर आता है। इसीलिए आग की गोद में बैठा प्रह्लाद अनजला बच गया। उस परम विजय के दिन को हमने अपनी जीवन शैली में उत्सव की तरह शामिल कर लिया। फिर जन सामान्य ने उसमें रंगों की बौछार जोड़ दी। बड़ा सतरंगी उत्सव है। पहले अग्नि में मन का कचरा जलाओ, उसके बाद प्रेम रंग की बरसात करो। यह होली का मूल स्वरूप था। इसके पीछे मनोविज्ञान है अचेतन मन की सफाई करना। इस सफाई को पाश्चात्य मनोविज्ञान में कैथार्सिस या रेचन कहते हैं।कोथेरेपी का अनिवार्य हिस्सा होता है मन में छिपी गंदगी की सफाई। उसके बाद ही भीतर प्रवेश हो सकता है।होली जैसे वैज्ञानिक पर्व का हम थोड़ी बुद्धिमानी से उपयोग कर सकें तो इस एक दिन में बरसों की सफाई हो सकती है। फिर निर्मल मन के पात्र में, सद्दवों की सुगंध में घोलकर रंग खेलें तो होली वैसी होगी जैसी मीराबाई ने खेली थी : बिन करताल पखावज बाजै, अनहद की झनकार रे फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना रे बिन सुर राग छत्तीसों गावै, रोम-रोम रस कार रे होली खेल मना रे Acharya Rajesh Kumar

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